संघर्ष

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मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

क्या हम अपने अंदर का, रावण मार सके हैं?....



हर साल दशहरे पर हम, रावण का पुतला है जलाते,
राम की बताई राह चलेंगे, सौ सौ बार कसम है खाते..........
राम लीला के आदर्श, क्या जीवन मैं हम उतार सके है?
क्या हम अपने अंदर का, रावण मार सके हैं?........

हममे कितनी सीतायें, राम के साथ वन गमन करेंगी,
राजसी सुख त्याग कर, काँटों का जा वरण करेंगी.........
हम सभी ढूंढते निज पत्नी मैं, पावनता गीता की,
पर हम मैं कितने राम हैं जो, उम्मीद करें सीता की......
परनारी तकने के भाव को, हम खुद मैं से क्या निकार सके हैं?
क्या हम अपने अंदर का, रावण मार सके हैं?........

जब भी भक्ति की बात है चलती, हनुमत सबको याद हैं आते,
असम्भव को भी सम्भव करते, अपना सीना चीर दिखाते,
प्रभु भक्ति की बात करो मत, पर राष्ट्र भक्ति हम कितनी दिखाते,
सत्ता जिनके हाथ मैं है, वही देश को बेच के खाते...........
सत्ता और दौलत के मदमस्तों का, हम अब तक क्या उखार सके हैं,
क्या हम अपने अंदर का, रावण मार सके हैं?........

लछमण और भारत से भाई, आज यहाँ कितनो के हैं,
कैकई से दुश्मन यहाँ पर, आज बहुत अपनों के हैं,
बात चली तो बात से ही, प्रश्न यहाँ पर उठते अनेक,
लछमण, भारत सभी चाहते हैं, पर खुद मैं ढूंढे राम ना एक.........
हममे खुद बाली, बहुतों के मन मैं, उसका क्या बिगार सके हैं,
क्या हम अपने अंदर का, रावण मार सके हैं?........

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