संघर्ष

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रविवार, 26 सितंबर 2010

पेट पालने की खातिर, कोई पेट मैं पलते देखा है,


चिराग जलाने की कोशिश,
घर हमने जलते देखा है,
पेट पालने की खातिर,
कोई पेट मैं पलते देखा है,

भूखी माँए रोते बच्चे,
तन नंगा और मन नंगा,
एक दिन के चावल को ही,
हो जाता है बदन नंगा,
इस युग मैं हर मोड़ पे हमने,
सीता को हरते देखा है,

खुश दिख कर यहाँ करने पड़ते,
बदन के सौदे रातों मैं,
बदन के लालची भेडिये,
रहते सदा ही घातों मैं,
यहाँ द्रोपदी को चीर हरण,
खुद अपना करते देखा है,

सोने वाले सो नही पते,
रात यहाँ सो जाती है,
जग की जन्म देनी माँ,
खुद गर्त मैं खो जाती है,
पेट की खातिर खुद ही हमने,
खुद को छलते देखा है,

चिराग जलाने की कोशिश,
घर हमने जलते देखा है,
पेट पालने की खातिर,
कोई पेट मैं पलते देखा है,


पेंटिंग - गुस्ताव किल्म्ट

1 टिप्पणी:

  1. मैं कुछ समय छत्तीसगड़ के रायगड, बस्तर और उड़ीसा के झारसुगड़ा आदि जिलों मैं घूमा हूँ वहाँ मैंने देखा की किस तरह छोटी छोटी जरूरतों के लिए गरीव किसानो की जमीन साहूकारों के चंगुल मैं चली जाती है, और फिर ताजिंदगी ये गरीव किसान उस छोटी सी रकम का ब्याज भरने मैं ही बंधुआ मजदूर बन उस साहूकार के यहाँ जिन्दगी काट देते हैं मगर मूल तो दूर ब्याज भी खत्म नही हो पता है, अभी मैं फिर छत्तीसगड़ से लौटा हूँ फिर वही यादे ताजा हो गई, हालांकि गुजरे बीस सालों मैं बहुत कुछ बदल गया है मगर नही बदला तो वही गरीव का नारकीय जीव

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